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दिगम्बर जैन साधु
[ ७५ · · · · सन् १९२६ में पूज्य आचार्य चारित्र चक्रवति शांतिसागर महाराज से मार्ग शीर्ष सुदी १५ सं १९८६ में सोनागिर पहाड़ के ऊपर मुनि दीक्षा. ली।
सन् १९३८ में आप आचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के संघ में रहने लगे और उनकी अंत अवस्था जानकर उनको वैयावृत्ति की । आचार्य श्री ने अपना अन्त समय जानकर आचार्य पद के लिये समस्त संघ के मुनियों को आज्ञा दी कि नमिसागरजी को अपना प्राचार्य मानना । सन् १९४५ में आप आचार्य पद पर आसीन हुए उसके बाद अनेक स्थानों पर भ्रमण करके जनता को सही मार्ग दर्शन दिया।
ध्यान:
___ आप जब ध्यान में लीन होते हैं उस समय आपकी मुद्रा दर्शनीय है । आये हुए बड़े से बड़े उपसर्गों को आप बड़ी आसानी से सहन कर लेते हैं, कभी कभी तो ऐसे भी अवसर आ गये हैं जबकि उपवासादिकों के दिनों में अशक्तता के कारण आप गिर भी गये हैं पर फिर भी ध्यान से विचलित नहीं हुए । बागपत ( मेरठ ) में जब आप डेढ़ मास रहे।तो वहां शीतकाल में जमुना के किनारे चार-चार घन्टे तक ध्यान में लीन रहे । बडे गांव मेरठ में भी शीत ऋतु में आपने अनेक रात्रियों में मकानों की छतपर बैठकर ध्यान लगाया । ग्रीष्म ऋतु में तारंगा तथा पावागढ़ (बड़ौदा ) के पहाड़ों पर जाकर चार-चार घन्टे तक समाधि में रहे।
ज्ञान : • यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि आपकी प्रारम्भिक शिक्षा ने कुछ के बराबर थी किन्तु साधु दीक्षा के बाद से आपने इतना अच्छा शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लिया था कि सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय को न केवल भली भांति समझ ही लेते थे अपितु दूसरों को भी बहुत अच्छी तरह समझा देते थे। आपने अनेक उच्चकोटि के दार्शनिक सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय किया था जिस समय आप आध्यात्मिक विषय पर व्याख्यान देते तब ऐसा मालूम होता था कि मानों आपको अन्तरात्मा ही बोल रही है। उपदेश:
आपके उपदेश सार्वजनिक भी होते थे हरिजन समस्या के विषय में आपने अपने भाषणों में अनेक बार कहा था मैं हरिजनों को उतना ही उन्नत देखना चाहता हूं जितना कि और जातियां हैं। उनकी भोजन, वस्त्र, स्थान आदि की समस्या हल होनी चाहिये, पठन पाठन की व्यवस्था भी