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दिगम्बर जैन माधु
२६ वर्ष की आयु अर्थात् सन् १९१४ में श्रापका विवाह हो गया । चार वर्ष बाद द्विरागमन ( गोना) हुआ । उससे आपके पुत्र उत्पन्न हुआ किन्तु तीन महीने बाद ही वह काल कवलित हों गया। इस दुःख को भूल भी न पाये थे कि उनके तीन मास पीछे ही आपकी धर्मपत्नी का भी सदैव के लिये वियोग हो गया । इस प्रकारः प्रायः डेढ़ वर्ष तक ही आपको स्त्री का संयोग रहा श्रव अपने दूसरा विवाह न करने का निश्चय कर लिया ।
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हम पहले ही लिख चुके हैं कि ये व्यापार में बड़े कुशल थे तथा समय समय पर अन्य व्यापार भी करते थे । एक बार कपास ( रूई ) के व्यापार निमित्त आपको सेरदाङ राज्यान्तर्गत जाम्बागी नामक गांव में जाना पड़ा। वहां पर इनको व्यापार सम्बन्धि कार्याधिक्य से दिन में भोजन बनाने का अवकाश न मिला । दक्षिण प्रान्तः में अपने ही हाथ से भोजन बनाकर खाने की प्रथा है ।.. श्रतः रात्रि में हीं इन्होंने अपने हाथ से भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया । उन दिनों तक जैन कुल में उत्पन्न होते हुए भी शिक्षा के प्रभाव से धार्मिक भावना जागृत नहीं हुई थी, अतः रात्रि में भी भोजन कर लेते थे । इन्होंने' भात बनाने के लिए उबलते हुए पानी में चावल डाले । स्मृति-दोष से उसका ढ़क्कन ेन रख पाये'। दूध, दही, मीठा लेने के लिये नौकर को बाजार भेज दिया, उधर न मालूम कंव दो बड़े बड़े कीड़े उसमें गिर पड़े। जब भोजन करने बैठें तब भात परोसने के साथ वे दोनों कीड़े भी उस थाल में परस गये । उनको देखकर इनके मन में बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई । विचारने लगे कि अपने पेट भरन' के लिये मेरे द्वारा इन दो जीवों का व्यर्थ में वध हो गया, अगर में रात्रि को भोजन न करता तो यह जीवों की हिंसा न होतीं । बहुत पश्चात्ताप किया तथा आत्म निन्दा और गर्हा भी की । उस समय तो भोजन किया हीं नहीं बल्कि रात्रि भोजन को महान् हिंसा का कारण जान जन्म पर्यन्त के लियो त्याग कर दिया ।
इस घटना से ही इनके जीवन में परिवर्तन हो गया । कार्यभार अपने छोटे भाई को सौंप दिया और श्राप गृह से उदास हो गये । तीन वर्ष तक संवेगी श्रावक दशा में रहे, आपका यह समय तीर्थ-यात्रा और सत्संगति में ही व्यतीत हुआ । सन् १९२३ में आपने बोर गांव में श्री १०८ पूज्य आदि सागर मुनिराज से विधिवत् क्षुल्लक दीक्षा ले ली और नाम श्री पायसागर रखा गया।
- १६२५ में सम्मेद शिखरजी की यात्रा जाने वाले आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के विशाल संघ में शामिल होकर आपने इन्हीं से विधिपूर्ण ऐलक दीक्षा ले लीं । उस समय आपका न नमिसागर रखा गया । ऐलक अवस्था में आप पांच वर्ष रहे । और संघ के साथ १९२६ से १६२६ तक. जयपुर, कटनी (मध्यप्रान्त): ललितपुर (उत्तर प्रान्त) में श्रापने चतुर्मास किये। इसी मध्य में संघ नेः तीर्थराज की वंदना की