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धर्म-कर्म-रहस्य वन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रु वत् ॥ ६॥
(०६). शरीर से इन्द्रिय ऊपर है, इन्द्रिय से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से जो ऊपर है वही आत्मा है। इस प्रकार बुद्धि से पर ( ऊपर अर्थात् उसके प्रभु ) आत्मा को जान आत्मा द्वारा ही नीचे के आत्मा बुद्धि आदि को वश में करके दुर्जय काम (वासना) रूप शत्रु को जीते। जिस जीवात्मा ने बुद्धि, मन, इन्द्रिय, शरीर रूप नीचे के आत्मा को जीता उसका तो ये मित्र होकर हित करते हैं और जिसने नहीं जीता उसकी वे, शत्रु बन, हानि करते हैं। अतएव यह हम लोगों का परम कर्तव्य है कि जिन शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि के सङ्ग हम लोगों का सदा वास है और सब भावना और कार्य जिनके द्वारा ही हो सकते हैं, अन्य द्वारा नहीं, उनको अवश्य शुद्ध और वश में करके मित्र बनाकर हितसाधन में रत रक्खें न कि शत्रु रूप बने रहने दें जिसके कारण वे सदा सर्वदा केवल अनिष्ट ही करेंगे।
विचार से अपने को बुद्धि के भी परे शुद्ध चैतन्य आत्मा बोध कर मन इन्द्रियादि की निकृष्ट वासनाओं को विष मान उनकी पूर्ति न कर और सात्विक भावना से शुद्ध और निग्रह करके कर्तव्य पालन और यथार्थ स्थायी उन्नति के सम्पादन में प्रवृत्त करना चाहिए।