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इन्द्रिय-निग्रह उसकी हरकत से दोनों, प्रभु और भृत्य अथवा वाहन, का अमङ्गल होगा। यही हम लोगों की अवस्था है। हम लोग प्रायः कहा करते हैं कि अमुक कार्य में मेरी बुद्धि ने मुझे भ्रम में डाल दिया, मेरा मन दुष्ट हो गया। इस प्रकार हम लोग मन और बुद्धि से अपने को अवश्य पृथक आत्मा मानते हैं, तथापि उनको शुद्ध और शासित करने का यत्न नहीं करते हैं; किन्तु उनकी कुत्सित वासना के अनुसार आहार विहार करते हैं जिसके कारण विपत्ति में पड़ते हैं। ऐसे उद्दण्ड और कामासक्त मन और इन्द्रिय शत्रु वन जाते हैं और अधःपतन का कारण होते हैं। इसलिये हम लोगों को चाहिए कि मन और इन्द्रिय की दुष्ट वासना और सङ्कल्प को कदापि स्वीकार न करें । इनसे अपने को पृथक समझ इनको शुद्ध और वश में करें। यह कार्य विचार द्वारा अधर्म और अनुचित भावना तथा कर्म की प्रवृत्ति को दूर कर केवल शुभ भावना और धर्माचरण में रत रहने से होगा। गीता का निम्नकथित उपदेश इस विषय में स्पष्ट है जिसका पालन अवश्य करना चाहिए
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा वुद्धियों बुद्धः परतस्तु सः ॥४२॥ एवं बुद्धः परं बुद्ध वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रु महावाहो ! कामरूपं दुरासदम् ॥ ४२ ॥
- . (अ. ३)