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धर्म-कर्म - रहस्य
संसृति-क्लेश की उलझन में फँसाये रहती हैं । अतएव इन शत्रु-रूपी इन्द्रियों का विना दमन किये मनुष्य का कल्याण कदापि नहीं हो सकता और न वह आत्मोन्नति के मार्ग में अग्रसर हो सकता है । इन्द्रियों का निग्रह विशेष अध्यवसाय और प्रयत्न से होता है । भोगासक्त इन्द्रियों को परम शत्रु जानकर उनके कामात्मक विषय भोग में दोष-दृष्टि की निरभावना करने से, उनकी अपेक्षा निवृत्ति को परम श्रेयस्कर मानने से, और उनकी भोगात्मक प्रवृत्ति को विचार और दृढ सङ्कल्प द्वारा रोकने से, इन्द्रियनिग्रह हो सकता है; सचिदानन्दरूपी परमात्मा में तादात्म्य भाव रखने से, प्राकृतिक निकृष्ट भोग के विषयों को परिणाम में दुःखद और नश्वर निश्चय कर केवल आत्मा को यथार्थ श्रानन्द का एकमात्र कारण जानकर उस ज्ञान को व्यवहार में परिणत करने का यत्न करने से और इन्द्रिय- दमन के लिये ईश्वर से उपयुक्त सामर्थ्य पाने की प्रार्थना करने से इन्द्रियनिग्रह सम्भव है ।
शरीर से ऊपर श्वास, श्वास से ऊपर इन्द्रिय, इन्द्रिय से ऊपर शब्दादि पञ्चतन्मात्रा की वासना मन, मन से ऊपर बुद्धि और बुद्धि से ऊपर आत्मा है। शरीर से लेकर बुद्धि तक आत्मा के वाहन अथवा भृत्य हैं । यदि वाहन अथवा भृत्य अपने प्रभु के वश में रहकर प्रभु के हित-साधन में रहता है तो दोनों का उससे कल्याण होता है किन्तु यदि वाहन अथवा भृत्य वश में न किया जाय और स्वेच्छाचारी रहे तो