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________________ इन्द्रिय-निग्रह नायं देहो देहभानां नृलोके कष्टान् कामानहते विडभुजां ये ॥१॥ श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ५, अध्याय ५ मनुष्य-लोक में जन्म ग्रहण करके जिन मनुष्यों ने शरीर प्राप्त किया है उनको इस देह से दुःखदायी विषयों का भोग न करना चाहिए क्योंकि विपयों का भोग विष्ठाभोजी शंकर आदि को भी मिलता है। मनुष्य-जीवन का मुख्य कर्त्तव्य इन्द्रिय-निग्रह है, कुत्सित विषय-वासना में अनुरक्त इन्द्रियाँ यथार्थ में बड़ी अनर्थकारी प्रच्छन्न शत्रु हैं । वे आसक्ति के कारण माया के बन्धन में रखकर जीवात्मा को कैदी बनाकर आत्म-राज्य से च्युत रखती हैं और विचार में प्रवृत्त होने से उसकी प्रबलता कम हो जायगी, क्योंकि इन्द्रियाँ जड़ प्रकृति के कार्य होने के कारण नश्वर हैं और ठहरकर विचार द्वारा उस विपय की चाह को दूर करना कठिन नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियों को रोकने से उनकी प्रबलता जाती रहेगी; किन्तु इन्द्रियों का विषय की ओर जाना न रोकने से वे उत्तरोत्तर प्रबल होती हैं। ___* इन्द्रियों के विपय-भोग में फंसे रहना पशुधर्म है, जो मनुष्य के लिये अयोग्य है। मनुष्य को आन्तरिक शुद्धि, मानसिक श्रानन्द श्रादि की प्राप्ति की भोर चित्त को विशेष रूप से लगाना चाहिए। जो आनन्द शास्त्रज्ञान, कर्तव्यपालन और भक्तिसाधन द्वारा प्राप्त होता है, वह पशु श्रादि नीच वर्ग को कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसको इसकी प्राप्ति की सामग्री जो थन्तःकरण है वह नहीं है। अतएव जो मनुष्य विपयभोग में रत है वह यथार्थ मनुष्य नहीं, पशु-तुल्य है। .
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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