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धर्म-कर्म - रहस्य
श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा त्रात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयेा जितेन्द्रियः ॥९८॥ मनुस्मृति, अध्याय ४ स्मृति तथा निन्दा सुनकर, सुखद तथा दुःखद स्पर्श होने से, सुरूप तथा कुरूप को देखकर, सुस्वादु तथा कुस्वादु भोजन करके और सुगन्ध तथा दुर्गन्ध को सूँघ करके जो न हर्षित होता और न ग्लानि करता ( दोनों में समान रहता ) है वही जितेन्द्रिय है । और भी
यस्मै प्राज्ञाः कथयन्ते मनुष्याः, प्रज्ञामूल' हीन्द्रियाणां प्रसादः । मुह्यन्ति शोचन्ति तथेन्द्रियाणि,
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प्रज्ञालाभो नास्ति मूढेन्द्रियस्य ॥ ११ ॥ महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय २८७
जिनको मनुष्य ज्ञानी कहते हैं सो (ज्ञानी का ) ज्ञान इन्द्रियों के वश करने से होता है और जिसने इन्द्रियों को वश में नहीं किया और जो इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति की लालसा रखता है और उससे क्षुभित होता है उसको ज्ञान का लाभ नहीं होता* | ऋषभ ने पुत्र के प्रति कहा है
इन्द्रिय जब कभी विषयभोग की ओर झुके तो उसमें हठात् प्रवृत्त नहीं होना चाहिए किन्तु ठहर जाना चाहिए और उसके अन्तिम परिणाम के विचार करने प्रवृत्त हो जाना चाहिए । ठहरने और