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________________ ६६ धर्म-कर्म-रहस्य बड़ी, जिसको न्याय से पाने का अधिकार नहीं है और न उसके मालिक ने प्रसन्नता से उसे दे दी है अथवा देना चाहता है, किसी प्रकार मालिक के जानते अथवा अनजाने, अथवा छल कपट द्वारा, अथवा मालिक को विवश करके, लेना स्तेय अर्थात् चोरी है। यह बहुत बड़ा अधर्म है और इससे निवृत्ति अस्तेय है। इस स्वेय को किसी न किसी रूप में आजकल अधिकांश लोग करते हैं। अन्याय से जो बड़े लोग अपनी प्रजा अथवा अन्य गरीव लोगों से विना वेतन दिये परिश्रम करवाते, विवश कर अप्रसन्नता से नज़राना आदि लेते, ठोक और नियत कर अथवा देन से अधिक वसूल करते, कार्यकर्तागण घूस, रिशवत, वहरीर और अन्य प्रकार अन्याय से द्रव्योपार्जन करते हैं; दुकानदार कम तौलकर अथवा छल कपट, और असत्य द्वारा कम माल देते हैं; ये सव स्तेय अर्थात् चोरी के अन्तर्गत हैं। इस स्तेय का अवश्य फल यह होता है कि दोषी इस दोष की परिपक्कता होने पर प्रायः इसी जन्म में, किन्तु निश्चय आगामी जन्म में, निर्धन और दरिद्र हो जाता है। उसमें उपार्जन करने की योग्यता रहने पर और परिश्रम करने पर भी उसकी केवल अत्यन्त आवश्यकता की भी पूर्ति नहीं होती है और वह सदा सन्ताप और क्लेश में दग्ध होता रहता है। अतएव यह नितान्त भ्रम है कि अन्याय से किसी की वस्तु को लेने से लाभ होगा, जैसा कि तत्काल मालूम पड़ता है। इसका अवश्य परिणाम यह होता
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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