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अस्तेय है कि अन्याय से उपार्जित धन के कारण न्यायोपार्जित धन भी उसके साथ कालान्तर में नष्ट हो जाता है। यदि ऐसा धन दोपी की जीवितावस्था में नष्ट न भी होय तो भी उसके वाद अवश्य नष्ट हो जाता है। यह अधर्म लोभ और प्रसन्तोष के कारण किया जाता है, जिसका त्याग विचार द्वारा करना चाहिए । यह निश्चय है कि पूर्व प्रारब्ध कर्मानुसार जो अपनी कमाई है उतनी की प्राप्ति पुरुषार्थ से अवश्य होगी और उससे अधिक प्राप्त होना प्रायः असम्भव है; ऐसी अवस्था में अन्याय से भी उतना ही प्राप्त होगा जो सन्तोष और धैर्य को अवलम्बन कर थोड़ा काल ठहरने से न्याय द्वारा पुरुषार्थ से अवश्य मिलजाताऔर वह धन सुखदौर स्थायी होता। अाजकल अधिकांश लोग अन्याय से उपार्जन करना चाहते हैं किन्तु सफलता केवल थोड़ों को प्रारब्ध की अनुकूलता के कारण होती है, अतएव प्रारब्ध-कर्म अवश्य प्रबल है। असन्तोप और लोम का दुःखद परिणाम यह होता है कि एक तो अन्यायोपार्जित धन के कारण पूर्वार्जित न्याय की कमाई का भी हास हो जाता है। दूसरे वह धन प्रायः व्यर्थ रूप में व्यय होता अथवा नष्ट हो जाता है। तीसरे उससे दृष्या और अशान्ति अधिक बढ़ जाती है जो परम दुःखद है। चौथे भविष्य में निर्धनता का कष्ट भोगना पड़ता है। और पाँचवें अन्यायार्जित धन कदापि स्थायी नहीं रहता किन्तु कभी न कभी नष्ट हो ही जाता है और रहने पर भी उससे चित्त में