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________________ ६४ धर्म-कर्म- रहस्य और उस समय चित्त केवल उसी ध्येय पर संलग्न रहे और अन्य कोई भावना न आने पावे और न चित्त उस ध्येय को छोड़कर अन्यत्र जाय । यदि जाय तो उस भावना को शीघ्र चित्त से बाहर करके फिर ध्येय पर चित्त को संलग्न करना चाहिए। ध्येय पर चित्त संलग्न करने के अभ्यास के साथ उसके नाम का चिन्तन करने से विशेष सुविधा होती है और निद्रा का आना रुकता है। इसी कारण ध्यान के साथ जप का विधान हैं । दोनों प्रकार के अभ्यास द्वारा ही चित्त एकाग्र होता है, अन्य उपाय द्वारा कदापि नहीं यह अटल सिद्धान्त है। गीता में भी यही सिद्धान्त है जैसा कि यता यता निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ( गीता श्र० ६- २६ ) । अस्थिर और चञ्चल मन जब जब आत्मा अर्थात् ध्येय से पृथक चला जाय तव तत्र उसको वहाँ से लाके फिर आत्मा (ध्येय) में संलग्न करना चाहिए। कथा है कि किसी पण्डित का एक विद्यार्थी अनेक काल से एक पद को कण्ठस्थ करने का यत्न कर रहा था किन्तु वह कृतकार्य न हुआ । ऐसा सुनकर पण्डितजी ने उससे पूछा कि पाठ के रटने के समय तुम्हारे मन में क्या भावना रहती है ? उसने उत्तर दिया कि एक भैंस के बच्चे की स्मृति वर्तमान रहती है । पण्डितजी ने उस विद्यार्थी को पाठ के रहने के बदले अपना पूरा चित्त केवल उस भैंस के बच्चे के ध्यान पर लगाने को कहा और उसने वैसा ही किया । 'कुछ समय के बाद पण्डित Parag
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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