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दम
६३ द्रष्टा ) के विचार विवेक द्वारा स्वार्थ को परमार्थ में परिवर्तन करके सांसारिक फर्म को भी न्याय और धर्म के अनुसार कर्तव्य की भाँति सम्पादन करने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और उपासना ध्यान द्वारा इसकी चंचलता को दूर करने से एकाग्रता प्राप्त होती है । प्रथम अभ्यास यह हैं कि जो कुछ दैनिक कार्य शयनेोत्थान के बाद से रात्रि में शयनपर्यन्त किया जाय वह एकाग्रता के साथ किया जाय अर्थात् जो कुछ कार्य अथवा भावना की जाय उस समय चित्त उस एक में ही संनिवेशित रहे और अन्य प्रकार की किसी भावना को चित्त में स्थान न दिया जाय, यदि आवे तो उसे तत्क्षणात दूर कर दिया जाय । जैसा कि यदि भोजन कर रहे हैं तो केवल भोजन के सम्बन्ध की भावना उस समय चित्त में रहे अन्य कुछ नहीं रहे और सिवा भोजन के अन्य भावना नहीं आने पावे और आने से दूर कर दी जाय । यदि कोई पुस्तक पढ़ी जाय तो केवल उस पाठ्य विषय की भावना उस समय चित्त में रहने पात्रं, न कि उस समय भोजन अथवा यात्रा आदि की भावना । इस प्रकार प्रत्येक दैनिक कार्य को एकाता के साथ करने से वह कार्य उत्तम रूप से सम्पन्न होगा और उसकी सफलता की सम्भावना अधिक हो जायगी । इसके द्वारा एकाग्रता शक्ति की प्राप्ति होगी। जिस सात्विक और पवित्र ध्येय में चित्त स्वाभाविक आकर्षित हो उस पर एकाग्रता के साथ ध्यानचिन्तन नियत समय पर करना चाहिए