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________________ धर्म-कर्म-रहस्य है। मन-निग्रह के लिये यह भी आवश्यक है कि मन में किसी मलिन वासना को नहीं आने दिया जाय; आने से उसको विष के समान जान तुरन्त हटा दिया जाय, और जो कुछ कार्य, सांसारिक अथवा पारमार्धिक, कियं जायें उनमें मन को एकाग्र रखने का निरन्तर यत्न किया जाय । मन और चित्त से उच्च अपने को आत्मा समझना चाहिए और ऐसा पृथक समझ मन-चित्त की कुत्सित वासना और दुष्परामर्श को कदापि नहीं स्वीकार करना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि ये कामादि शत्रु-दल द्वारा भेजे हुए हैं। ऐसा विचार कर मन को सात्विक भाव में संयुक्त करना चाहिए। यह एक प्रकार का संग्राम है जिसमें बड़ा सावधानी की आवश्यकता है। स्मरण रहे कि बुद्धि से जो कार्य अनुचित निश्चय हो उसको चित्त के प्रलोभन पर भी नहीं करना चाहिए जिसके होने से बुद्धि अर्थात् इच्छा-शक्ति की सामर्थ्य बढ़ती है और आसक्ति का हास होता है किन्तु विपरीत करने से आसक्ति बढ़ती है और इच्छा-शक्ति दब जाती है जिसके कारण वह उत्तरोत्तर गिरती जाती है। किन्तु आजकल जब कि नवयुवक सिगरेट को विप समझ के भी वासना के प्रलोभन में पड़कर उसका त्याग नहीं करते हैं, ऐसी अवस्था में क्या आशा है कि वे मन का निग्रह कर सकेंगे ? इस प्रकार प्रात्मा और अनात्मा ( अनात्मा जड़ त्रिगुणात्मक प्रकृति के कार्य और आत्मा सत् चित् आनन्द रूप
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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