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________________ धर्म-कर्म-रहत्य की शक्ति का फत्त है। इस मन को केवल कामासक्त रहने से और इसको शक्ति का केवल भोग-लिप्सा की प्राप्ति में उपयोग करने से वह जीवात्मा के बन्धन और संतृति-क्लेश का कारण होता है। और यही मन यदि भोगासक्ति से छुटकारा पाकर और शुद्ध, शान्त और समाहित होकर परम कल्याण और परमानन्द के एक नात्र आधार परमाला में संलग्न हो और परनात्मा के दिव्य गुणों को अपने में प्रकाशित करने का जीवन का मूल्याश्य बनाने, तो मन ही मोन का कारण होता है और तब यह परमात्मा में तन्मय हो जाता है। यह उभवात्मक मन ही इस जीवन-संग्रान का मुख्य क्षेत्र और आयुध भी है जिसका परिष्कार और सदुपयोग आवश्यक है महाभारत का वचन है मनो निश्रेयस जन्तोस्तस्य मूलं शमो दमः। तेन सर्वानवामोति यान्कामान् मनसेच्छति ॥ २३ ॥ शान्ति, मो०, अ. ५६ प्राणो के लिये तरत्या अवश्य कल्याणकारी है किन्तु उस तपस्या का मूल मन और इन्द्रिय का निग्रह है। इनके निग्रह से सब प्रकार की कामना पूर्ण होती है। यह भारत का चाक्य अक्षरशः सत्य है। आजकल पाश्चात्य देश में मनोयोग (जिसको वे लोग आत्म-शक्ति कहते हैं) की शक्ति को परीक्षा हुई है जिससे सिद्ध हुआ कि उसके अभ्यासी का रोग,
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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