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________________ ५४ धर्म-कर्म-रहस्य उनके ईश्वरत्व के योग्य है। ऐसा करके उन्होंने हम लोगों । को उपदेश दिया कि अभिमान, अहङ्कार, दम्भ, मान, मद आदि यथार्थ में विष हैं जिनका त्याग कर अमानी, दम्भशून्य, कोमल, अधीन, सरल, अपनी दृष्टि में लघु, सहिष्णु आदि बनना चाहिए और ये ईश्वर-प्राप्ति के लिये आवश्यक हैं। वाल्मीकीय रामायण, उत्तर काण्ड अध्याय ६२ में कथा है कि । एक वार भृगु ऋषि ने श्रीविष्णु भगवान को शाप दिया और शाप देकर उनसे प्रार्थना की कि आप मेरे शाप को स्वीकार करें जिसके नहीं स्वीकार होने से मुझे बड़ा दोष होगा। श्रीभगवान ने भृगु को दोष से बचाने के लिये उस शाप को स्वीकार किया और उसी कारण मर्त्यलोक में जन्म लेने के कष्ट को अपने ऊपर लिया। रावण के वध के बाद जब भगवान श्रीरामचन्द्रजी को स्वर्गागत राजा दशरथ के दर्शन हुए तो श्रीभगवान् ने उनको वन के कष्ट देनेवाली कैकेयी के उपकार के लिये ऐसा वर माँगा सपुत्रां त्वां त्यजामीति यदक्ता कैकयी त्वया । स शापः कैकयीं बोरः सपुत्रांन स्पृशेत् प्रभो ॥२५॥ वाल्मीकि रा०, लङ्का अ० १२१ आपने जो कैकेयी को कहा कि "मैंने तुमको तुम्हारे पुत्रसहित त्याग किया" यह भीषण शाप सपुत्रा कैकेयी को न लगे। दण्डकारण्य के ऋषिगण केवल शाप द्वारा वहाँ के राक्षसों का
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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