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________________ क्षमा नाश कर सकते थे किन्तु राक्षसों से भक्षित होते रहने पर भी उन लोगों ने, अपने प्राण बचाने के लिये भी, शाप का प्रयोग न किया किन्तु क्षमा की, क्योंकि उनका क्षमा ही धर्म था। उन्होंने उन राक्षसों के हित के लिये श्रीभगवान् रामचन्द्र से, जिनको दण्ड देने का अधिकार था, दण्ड देने के लिये प्रार्थना की। श्रीगुरु-ग्रन्थ साहब का वचन है जो तै मारे मुक्कियाँ फिर न मारे घुम । घर तिनाँके जायके पैर तिनाके चूम ।। सब भूतों में ईश्वर के वास को मानकर उनके साथ आदर, मैत्री और प्रेम भाव रखने से और अपने को भी प्रात्म-दृष्टि से अन्य प्राणियों से अभिन्न मान अहङ्कार, मान, मद, क्रोध आदि का नाश कर परोपकार में रत होने से क्षमा की प्राप्ति होगी। इस क्षमा के अभ्यास से सांसारिक व्यवहार में हानि के बदले अवश्य बहुत बड़ा लाभ होगा। क्षमाशील से उसके क्षमा-गुण के कारण न कोई शत्रुता करेगा और न द्वष रखेगा, वरन् अधिकांश लोग और उसके शत्रु भी उसके हित और मित्र बन जायेंगे और वह शान्ति लाभ करेगा। व्यवहार में वह अवश्य कृतकार्य होगा किन्तु कुछ कालान्तर के बाद इसका उत्तम परिणाम देखने में आवेगा, शीघ्र नहीं। मनु भगवान का वचन है अतिवादास्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन । न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ ४७॥
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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