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धर्म-कर्म-रहस्य जाय तो दोनों भावनाएँ, समान होने के कारण. एकत्र होकर प्रवला हो जायेंगी और दोनों के द्वेषभाव को अधिक बढ़ाकर दोनों की बड़ी हानि करेंगी और अन्य संसर्गी दुष्ट खभाववालों का भी स्वभाव बढ़ाकर सबों की हानि करेंगी।
जब परीक्षा के उद्देश्य से महर्षि भृगु ने श्रीविष्णु भगवान् की छाती में लात मारी, तव श्रीभगवान् ने जो उनको कहा वह संसार के लिये उपदेश है और उस भावना को सबों को धारण करना चाहिए, क्योंकि यह विश्व श्रीभगवान् का ही रूप और अंश होने के कारण उनके गुण स्वभाव का अनुकरण करना परमावश्यक है। पग का आघात लगने पर श्रीभगवान् ने कहा
आह ते स्वागतं ब्रह्मन् ! निषीदात्रासने क्षणम् । अजानतामागतान् वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो ॥९॥ अतीव कोमलौ तात ! चरणी ते महामुने ! वज्रकर्कशमद्वक्षः स्पर्शेन परिपीडितौ ॥१०॥ इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन्वन पाणिना | पुनीहि सह लोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान् । पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ॥११॥
अद्याहं भगवन् लक्ष्म्या आसमेकांतभाजनम् । . वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहताहसः ॥१२॥
भागवत, स्क० १०, १०८६ .