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धर्म-कर्म-रहस्य वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार धीर और संतुष्ट व्यक्ति को : सांसारिक व्यवहार में भी सफलता प्राप्त करने की सम्भावना अधिक हो जाती है जो अंधार और असंतुष्ट के लिये सम्भव नहीं है। मुख्य बात तो यह है कि विषय की वासना की प्राप्ति से कदापि किसी को तुष्टि नहीं होगी, जैसे कि अग्नि में घी के देने से अग्नि को चाला अधिक ही बढ़ती है, कदापि शान्त नहीं होती। यह अटल नियम है कि मनोरथ का कभी अन्त नहीं है। इम संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, वह कई करोड़ों का अधिपति क्यों न हो, जिसको अपनी वर्तमान अवस्था से संताप हो। सव को और अधिक की चाह रहती है, क्योंकि पाहापदार्थ असार और असन् हैं, उनमें प्रानन्द कहाँ ? ऐली अवस्था में यदि केवल सांसारिक विषय-वासना की पूर्ति ही एकमात्र जीवन का लक्ष्य रखा जाय तो सम्पूर्ण जीवन ही दुःखमय हो जायगा, क्योंकि विषय का कितना ही अधिक लाभ और प्राप्ति क्यों न हो, अधिक की चाह अवश्य बनी रहती है। धैर्य का तात्पर्य यह है कि कष्ट के आने पर जुभित न होकर और अभ्यन्तर से अविचलित और शान्त रहकर प्रतीकार के लिये आवश्यक यन्न उत्तम रीति से अवश्य करे जिसके कारण सफलता की सम्भावना अधिक हो जायगी। - अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ।।
अर्थात् अपने को अजर अमर समझ विद्या और धन के उपार्जन में प्रवृत्त रहे। . यह उक्ति धैर्य-सूचक ही है। ...