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________________ धृति ४५ स्योंकि दुःख पाने पर जो नुभित होते हैं वे सामर्थ्य-हीन हो जाते हैं और दुःख दूर करने के ठीक उपाय का निश्चय और साधन नहीं कर सकते हैं। धैर्य और संताप का यह अभिप्राय नहीं है कि फठिनाई के मिटाने के उपाय का अवलम्ब नहीं किया जाय । संताप अथवा धैर्य रखने का यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि दुःख, प्रभाव आदि कठिनाई के आने पर अपने को निःसहाय अथवा लघु समझकर उसको सह लें और प्रतीकार के लिये कुछ न करें। इसका यथार्थ तत्व यह है कि जीवात्मा तो अपने यथार्थ स्वरूप से ईश्वर का अंश, सत, चित्, प्रानन्द, अजर, अमर, नित्य, शाश्वत्, अचल, सर्वगत, सनातन (गोता अ० २-२३ से २५) है। रामायण में भी लिखा हैईश्वर अंशजीव अविनाशी । चेतन अमल सदा सुखराशी ॥ अतएव जीवात्मा को तो दुःख अथवा अभाव कदापि व्याप्त कर नहीं सकता है किन्तु वह अज्ञान के कारण अपने यथार्थ रूप और सामर्थ्य को भूलकर दुःख, दारिद्रय आदि क्लेश से तुभित होता है। अतएव संतोप का यथार्थ तात्पर्य यह है कि धीर अपने को आत्मा मानकर और शरीर आदि जड़ उपाधि से प्रात्मा-चेतन-द्रष्टा में भेद मानकर नित्य सुखी रहे और अपने को सांसारिक सुख-दुःख से परे समझे। शरीर अथवा व्यवहार सम्बन्धी घटना में निरासक्त और समत्व-भाव रखने से बुद्धि ठीक रहती और कार्य करने की शक्ति और साहस की
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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