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धर्म-कर्म-रहस्य "वक्तव्यश्चैव तृपतिः धर्मेण सुसमाहितः । । यथा भ्रातषु वत्तेंथास्तथा पौरेप नित्यदा ॥ १५॥ परमो यष धर्मस्ते तस्मात्कीर्तिरनुत्तमा । अहन्तु नानुशोचामि स्वशरीरं नरर्षभः ॥ १६ ॥ यथापवाद पौराणां तथैव रघुनन्दन । पतिर्हि देवता नाऱ्याः पतिवधुः पतिगुरुगा
वाल्मीकि रामायण, उचर काण्ड, अ०५८ हे लक्ष्मण ! नितान्तु धर्मशील राजा से कहना कि जैसे वे अपने भाइयों के साथ व्यवहार करते हैं वैसा ही व्यवहार पुरवासियों के प्रति रक्खें, क्योंकि यह राजा का परम धर्म है और इलसे उत्तम कीर्ति मिलती है। हे राजन् ! अपने पतिदेव और पुरवासियरा की निन्दा बचाने के लिये मैं जैसी चिन्तित रहती हूँ वैसी अपने शरीर के लिये नहीं, क्योंकि स्त्री का पति ही देवता, गुरु और हितैषो है। श्रीसीताजी को सन्देह हो गया कि मेरे पति-देव ने जो पुरवासी के मिथ्या कलङ्क के कारण मेरा त्याग किया है उसके कारण वे कहीं पुरवासी से विरक्त अथवा अप्रसन्न न हो जायें जिससे उनके धर्म में हानि होगी। इस कारण अपने कष्ट के प्रधान कारण निन्दक-पुरवासी के साथ भ्रात-समान हित करने का सन्देशाभेजा। हम लोग विचारें कि यह कैसा धैर्य है! इस काल में भी श्रीभगवान बुद्ध के राज्य-त्याग कर मिनु-वृत्ति के कष्ट को सहर्प ग्रहण करने से