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धृति.
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असन्तोष पाप का और सन्तोष धर्म का मूल है। सन्तोष नहीं रहने से चित्त चञ्चल और उद्विग्न रहता है और चञ्चल और उद्विग्न मन अशान्ति का कारण है और ईश्वरमुख हो नहीं सकता। तृष्णा को त्यागकर सन्तोष का अवलम्बन करने से आनन्द की प्राप्ति होती है। और
सन्तोषामृतत्प्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्चधावताम् ।।
सन्तोषरूपी अमृत से तृप्त और शान्त चित्तवाले पुरुषों को जो सुख होता है वह सुख धन के लोभियों को, जो इधर उधर दौड़ा करते हैं, कैसे प्राप्त हो सकता है ? श्री पतजलि भगवान का वाक्य हैसंतोपादनुत्तमसुखलामः॥
पातजल योगसूत्र सन्तोष से अत्युत्तम सुख की प्राप्ति होती है। जैसेसर्पाः पिवन्ति पवनं न च दुर्वलास्ते
शुष्कैस्तृणैर्वनगजा वलिनो भवन्ति । कन्दैः फलैमुनिवरा गमयन्ति कालं
. संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ॥ : : साँप वायु पी के जीता है किन्तु दुर्बल नहीं होता; वन का हाथी सूखी घास खाने से बलिष्ठ बना रहता है, मुनिगण