________________
धर्म-कर्म-रहस्य कन्द और फल को खाके समय बिताते हैं, अतएव सन्तोष ही पुरुष का उत्तम धन है। क्योंकि -
यच्च कामसुख लोके यच्च दिव्य महन्सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्यैते नाईत: पोडशी कलाम् ।।
महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय १७४ संसार में कामना पूर्ण होने से जो सुख होता है और जो स्वर्गादि लोकों का उत्तम सुख है वे सुख तृष्णा के नाश होने से जो सुख होता है उसके सोलहवें अंश के तुल्य भी नहीं हैं।
दुःख पाने पर जीवात्मा को यह चेतावनी मिलती है कि यह (दुःख) तुम्हारे पूर्व के दुष्कर्म का फल है जिसको भोगकर भविष्य के लिये दुष्कर्म के न करने का बढ़ निश्चय करो। यह ज्ञान अन्तरात्मा को हो जाता है और संस्कार की भाँति सदा उसमें वर्तमान रहता है और इसके कारण उस दुष्कर्म से, जिसका वह फल था, निवृत्ति हो जाती है। अतएव दुःख हित के लिये आता और मित्र है। ऊपर के सिद्धान्त से दुःख, प्रारब्ध-कर्म के फल होने के कारण, बिना भोग के क्षीण हो नहीं सकते और यह भी अटल नियम है कि प्रारब्ध-कर्मानुसार जो कुछ अपनी पूर्व की कमाई का फल यहाँ मिलना है वह अवश्य उपयुक्त पुरुषार्थ से मिलेगा; इस पर विचार करने से और ऐसा जान कर कि सांसारिक पदार्थ नाशवान हैं और यथार्थ सुख देनेवाले नहीं हैं यही परिणाम