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धर्म-कर्म-रहस्य क्षमासोल जे पर-उपकारी । ते द्विज प्रिय मोहि जथा खरारी ॥ बड़े सनेह लधुन पर करहीं। गिरि निज सिरन सदा तृन धरहीं। जलधि अगाध मौलि वह फेनू । संतत धरनि धरत सिर रेनू ।
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण मनसा कर्मणा वाचा चक्षुषा च समाचरेत् । श्रेयो लोकस्य चरतो न होष्टि न च लिप्यते ॥ २४॥
वाल्मीकीय रा०, उत्तर का०, अ० ७१ आलोच्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः । पुण्यं परोपकारांय पापाय परपीडनम् ॥
मन, कर्म, वचन और नेत्र से लोगों का कल्याण करे । ऐसा आचरण करनेवाला न किसी से द्वेष करता और न कलुषित होता है। ___ सव शाखों को बार बार पढ़ने और विचारने से यही सिद्धान्त निकलता है कि परोपकार करना पुण्य है और दूसरे को दुःख देना पाप है। जैसा दूसरे की भलाई करना परम धर्म है वैसा ही प्राणिमात्र को किसी प्रकार की हानि पहुँचाना महान अधर्म है।