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धर्म-कर्म-रहस्य है, जीव की रक्षा करने से जीवन की वृद्धि होती है और अहिंसा से सुन्दर रूप, आरोग्य और विभव मिलते हैं। .
परोपकार अहिंसा धर्म केवल निषेध अर्थात् हिंसा से प्रतिनिवृत्तिमात्र नहीं है किन्तु यह विधि अर्थात् क्रियात्मक भी है जिसके विना यह अपूर्ण है। अहिंसा की प्राप्ति प्रेम-मैत्री, करुणा भाव की प्राप्ति से होती है। बड़ों को पूज्य मान उनके प्रति प्रेम-भाव रख उनकी सेवा करनी, तुल्य को मित्र समझ उनके सुख को अपना सुख और उनके दुःख को अपना दुःख जान उनके सुख की वृद्धि की कामना और दुःख आने पर उसके मिटाने की यथासम्भव चेष्टा करनी अहिंसा की पूर्ति (विधिभाग) है। अपने से छोटों के प्रति करुणा-दया करके उनका भी अपना आत्मा मान उनके दुःख की निवृत्ति के लिये चेष्टा करनी भी अहिंसा का विधि-भाग है। इस प्रकार सेवा, और सेवा की भाँति परहित-कार्य, में निरत होना अहिंसा का मुख्य लक्षण है और विना इसके इसकी पूर्ति अथवा प्राप्ति नहीं होती। लिखा है
यस्य वाङ्मनसी स्यातां सम्यक् मणिहिते सदा । तपस्त्यागश्च योगश्च स वै परममाप्नुयात् ॥३४॥
महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय १८५ ।