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________________ ३० धर्म-कर्म-रहस्य ___जो कुछ हानि हम लोगों को दूसरे के द्वारा होती है वह हम लोगों के आन्तरिक द्वेपाक्त क्लेशकारी स्वभाव का प्रतिफल है। हम लोग दूसरे के शत्र बनते हैं, अतएव वे भी हम लोगों के शत्रु होते हैं। हम लोग आखेट के सुख के लिये, पेट भरने के लिये तथा अन्यान्य स्वार्थ और व्चर्घ कार्यों के लिये भी संसार के प्राणियों को कष्ट देते और उनका प्राण-नाश करते हैं, अतएव वे भी हम लोगों की हानि करने में बाध्य होते हैं और उसी कारण हम लोगों को सर्पभय, व्याघ्रभय, रोग-भय इत्यादि इत्यादि होते हैं। जो पुरुष किसी की किसी प्रकार की हानि करना नहीं चाहता और प्राणिमात्र में एक सर्वात्मभाव मानकर उन पर प्रेम और दया का वर्वाव करता है, वह हिंस्र पशुयुक्त जङ्गल में अकेला क्गे न घूमे और न्यानों की माँद में क्यों न चला जाय, सर्प पर उसका पग अनजान क्यों न पड़ जाय, किन्तु उसकी कोई हानि उनके द्वारा नहीं हो सकती। योगसूत्र में कथन है-"अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्तनिधौ वैरत्यागः। जो अहिंसा में परिनिष्ठ है उसके समीप आने पर दूसरे का हिल स्वभाव जाता रहता है। ईश्वर प्रेमस्वरूप है, अतएच जो सबों के साथ सर्वात्म-भाव मानकर प्रेम करता है, उसको ईश्वर के किसी अंश से भय नहीं हो सकता। यदि ऐसे पुरुष को कदापि कोई हानि किसी के द्वारा हो तो समझना चाहिए कि वह उसके पूर्वजन्म के दुष्ट कर्म का बहुत बड़ा ऋण था जो उसके अहिंसाभ्यास के कारण थोड़े में
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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