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अहिंसा इस अहिंसा की परिधि केवल मनुष्य अथवा पशु तक नहीं रहनी चाहिए किन्तु वृक्ष लता गुल्मादि तक जानी चाहिए । अहिंसक को व्यर्थ एक पत्ते को भी नहीं तोड़ना चाहिए, क्योंकि उसमें भी जीवन है और वह भी आवश्यक है। वाल्मीकि रामायण में कथा है कि ऋपि लोग जव एक दूसरे के पास जाते थे तो वे मृगादि पशु और आश्रम के लता-गुल्मवृक्षादि का भी कुशल-प्रश्न पूछते थे, क्योंकि उनको भी वे सजीव प्राणी समझते थे और रक्षा करते थे। लिखा है
न भूतो न भविष्योऽस्ति न च धोऽस्ति कश्चन । योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयौं पदम् ॥१८॥
महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय २६१ जो सवको अभय दान देता है ( किसी की हानि नहीं करता ) वह अभय पदवी को प्राप्त करता है और ऐसा धर्म न तो पूर्वकाल में कोई हुआ और न आगे होगा। क्योंकि
प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ।।
हितोपदेश प्राण जैसा अपने को प्रिय है वैसा दूसरे को भी प्रिय है, इसलिये साधु लोग अपने ऐसे दूसरे को भी जान के सबों पर दया करते हैं।