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________________ २८ धर्म-कर्म-रहस्य का भी दुःख-सुख जानना चाहिए और जो काम अपने को भला न जान पड़े वह दूसरे के साथ भी, केवल स्वार्थनिमित्त, नहीं करना चाहिए। क्योंकि अन्य प्राणी भी अपने समान परमात्मा के अभिन्न अंश होने के कारण अपने आत्मा के ही प्रतिरूप हैं। अतएव उनकी हानि करनी अपनी हानि करनी है। लिखा है यदन्यविहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः । न तत्परेषु कुर्वीत जाननप्रियमात्मनः ।। न तत्परस्य सन्दध्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः । एष सामासिको धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ __ महाभारत, शान्तिपर्व, मो० अ०८६ जीवितं यः स्वयंचेच्छेत कथं सोन्य प्रघातयेत् । यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत् ।।::: तत्रैव अ० २५ दूसरे द्वारा अपने प्रति किये जाने से जो कर्म अच्छा न लगे वह, अपने लिये अप्रिय होने के कारण, दूसरे के लिये भी नहीं करना चाहिए। जो अपने को न रुचे वह दूसरे के प्रति नहीं करना चाहिए यह सबके लिये धर्म है और इसके विरुद्ध कर्म अधर्म है। जो आप जीना चाहता है वह दूसरे का कैसे घात करता है? जैसी अपने लिये इच्छा करे वैसी दूसरे के लिये भी करनी चाहिए ।
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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