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अहिंसा उपकारः परो धर्मः परार्थः कर्मनैपुणम् । पात्रे दानं परः कामः परो मोक्षो वितृष्णता ॥
तत्रैव
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
प्राणियों की उत्पत्ति पालन के लिये ही धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। जिसमें अहिंसा का लक्षण हो वही धर्म है। चौथे परोपकार को कविगण धर्म का लक्षण कहते हैं। दूसरे के हित में निरत रहकर उपकार करना ही श्रेष्ठ धर्म है। पात्र को दान देना उत्तम दान है, और तृष्णा-राहित्य ही परम मोक्ष है। अठारह पुराणों में व्यास के केवल दो सार वचन हैंपरोपकार ही पुण्य और परपीड़ा ही पाप है।
अहिंसा धर्म का आधार अहिंसा है। किसी को शरीर, वचन और सङ्कल्प द्वारा भी किसी प्रकार की हानि पहुँचाना, दुःख देना अथवा हृदय दुखाना, या घृणा करना, मानहानि करना आदि हिंसा है। किसी का जीवन नष्ट करना तो घृणित और घोर हिंसा स्पष्ट है किन्तु इसके सिवा ऊपर कहे व्यवहार भी हिंसा ही हैं। अपने दुःख-सुख के समान दूसरे