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________________ धर्म-कर्म-रहत्व यो न हिंस्यादहं यात्मा भूतग्रामं चतुर्विधम् । तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कदाचन ॥३४॥ बृहस्पति मुखं वा यदि वा दुःख यत्किञ्चित् क्रियते परे । यत्कृतं तु पुनः पश्चात् सर्वमात्मनि तन्वेत् ॥२२॥ -दक्ष अ०३ जो मनुष्य अपने को सवों में एकात्मभाव मान चारों प्रकार के प्राणियों को दुःख नहीं देता उसको शरीर त्यागने पर कोई मय नहीं होता। जो सुख-दुःख दूसरे के लिये किया जाता है वह सब अपने नामा में ही आकर प्राप्त होता है। विना कर्तव्यपालन में विमुख हुए, अपनी क्षति भी करके, दूसरों का हित करना परम श्रेयस्कर और नुस्य धर्म है। लिखा है प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् । यः स्यात्मभवसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।। अहिंसाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् । यः स्यादहिंसया युक्तः स धर्म इति निश्चयः।। महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ८८ चतुर्थमर्थमित्याहुः कवयो धर्मलक्षणम् । तत्रैव अ पई ।
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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