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साधारण धर्म
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लेना, पवित्रता और इन्द्रियों का निग्रह, इस सार्वजनिक धर्म का मनु ने चारों वर्णों' के लिये विधान किया है । मनु ने अध्याय ४ श्लोक २०४ में कहा है कि "यमान्सेवेत सततं" अर्थात् यम धर्म का सतत अभ्यास करना चाहिए और योगसूत्र में भी प्रथम साधन यह है । ये यम, जिनकी प्रथम साधना अहिंसा है, पाँच हैं—
१ हिंसा, २ सत्य, ३ अस्तेय, ४ ब्रह्मचर्य, ५ प्रतिग्रह | इस यम के सार्वभौमिक और व्यापक धर्म होने के विषय में योगसूत्र यों लिखता है -
“जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतस्" ।
यह यम धर्म सब जाति, सब देश और सब समय के लिये सार्वजनिक परम कर्तव्य है अर्थात् यह व्यापक धर्म सव देश के सव मनुष्यों के लिये मुख्य कर्तव्य है । इसमें कोई विभेद हो नहीं सकता । इस प्रकार ऋषियों ने संसार के सब मनुष्यों के लिये व्यापक सार्वभौमिक समान धर्म का विधान किया जिसकी पुष्टि सब मतमतान्तरों ने की है । किन्तु शोक है कि आजकल उन ऋषियों की सन्तान भी इस धर्म को विस्मरण कर, उपधर्म को ही मुख्य धर्म मान, इस सार्वभौमधर्म पर पद पद में आघात कर रही है । इस यम का प्रथम पाद अहिंसा ही यथार्थ में धर्म की भित्ति है। का वचन है
स्मृति