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________________ २४ धर्म-कर्म-रहस्य नस्य, हिंसा, अन्याय, चोरी आदि पाप का लोप हो जायगा और सर्वत्र सुख-समृद्धि व्याप्त हो जायगी। तब संसार में मुख्य केवल एक धर्म हो जायगा और धार्मिक विद्वेष, वैमनस्य, मतमतान्तर का विरोध, फूट और विवाद आदि सब . शान्त हो जायेंगे। इस साधारण धर्म को मुख्य और सर्वोपरि मान लेने से (जिसके अभ्यास से बुद्धि निर्मल हो जायगी) विशेष और उपधर्म के भिन्न भिन्न रहने पर भी एकता ही वनी रहेगी, क्योंकि उनके तत्त्व का तव वोध हो जायगा। इस धर्म की भित्ति ईश्वर की व्यापकता और सृष्टि का एकात्म भाव है अर्थात् संसार मात्र ईश्वर के अंश से उत्पन्न होने के कारण आत्मदृष्टि से एक है, नाना नहीं; अथवा सव प्राणियों के एक ईश्वर से उत्पन्न होने के कारण-सव आपस में-भ्रातृ-भाव के सूत्र में बंधे रहने के कारण समान और एक हैं । अतएव दूसरे को दुःख देना अपने को दुःख देना है और दूसरे को सुख देना अपने को सुखी करना है। इस कारण अहिंसा इस साधारण धर्म में मुख्य धर्म है। मनु का वचन है अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतत्सामासिक धर्म चातुर्वण्ये ऽब्रवीन्मनुः ॥ ६२॥ अ० १० मन, वचन और शरीर से किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न देना, सच वोलना, अन्याय से दूसरे का धन न
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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