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________________ १६ धर्म-कर्म-रहस्य सम्पादन करंगा। ऐसे त्यागी व्यक्ति के द्वारा किसी की भी कदापि हानि होना सम्भव नहीं है, क्योंकि स्वार्थ के ही कारण कोई किसी की हानि करता है। धर्मरूपी जल से सींचे जाने से इस जगत् रूपी वृक्ष की वृद्धि होती है, जो परमात्मा को परम अभीष्ट और सृष्टि का उद्देश्य है, अतएव संसार में धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करने के निमित्त यत्न करना सब का परम धर्म है और इसी धर्म के द्वारा सव का यथार्थ कल्याण होता है। अपनी कुछ हानि करके भी दूसरे का उपकार, विशेषकर पारलौकिक उपकार, करना उत्तम धर्म है। विशेष धर्म पूर्व-वर्णित सिद्धान्त से व्यवहार में धर्म का मुख्य लक्षण प्रत्येक व्यक्ति का उसके जन्म, स्वभाव, योग्यता, अवस्था, प्रवृत्ति, अवसर आदि के अनुसार जो उचित और नियत कर्तव्य इस विश्वविराट्र में हो और जो अपने सम्बन्धी, आश्रित, संसर्गी, विश्व के प्राणी आदि के प्रति कर्तव्य हो, उनका धर्म की भांति विना दूसरे की क्षति किये हुए सम्पादन करना और उनके सम्पादन के लिये जो विशेष योग्यता सामग्री आदि की आवश्यकता हो उनकी भी कर्तव्य की भाँति प्राप्ति के लिये चेष्टा करना और इन सब का सम्पादन करते हुए और सर्वात्म में एकात्मभाव की धारणा रखके सृष्टि के मुख्य लक्ष्य ईश्वर के सृष्टि-यज्ञ की
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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