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विशेष धर्म पूर्ति के लिये उसमें सहयोग देना और अन्तिम लक्ष्य आत्मा को परमात्मा में सेवार्थ अर्पण करना है। इस विश्व-विराट में जो जिसका नियत स्थान और कार्य है उसका उचित रीति से, कर्तव्य की भाँति, पालन करना उसका प्रथम (मुख्य) धर्म है जिसको केवल वही कर सकता है, अन्य नहीं और उसके न करने से विश्व-विराट की क्षति होगी और साथ साथ उसके उसकी भी। यही उसका स्वभावज अथवा सहज धर्म है और इसी को स्वकर्म अथवा स्वधर्म भी कहते हैं और इसी के ऊपर वर्णाश्रम-धर्म स्थापित है ( गीता अ०४-१३ और १८४१ से ४६ तक )। अतएव प्रत्येक व्यक्ति संसार में अपने अपने स्थान में आवश्यक और उत्तम है और कोई शूद्र अथवा छोटा नहीं है। ब्राह्मण का शम दमादि से युक्त हो लोक-हित के लिये ज्ञान और धर्म का प्रचार, बिना क्षत्रिय की रक्षा और सुराज्य के प्रवन्ध के, हो नहीं सकता। इन दोनों की और अन्य की भी शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति-जैसे कि खाद्य पदार्थ, वस्त्र, सवारी, गृह आदि-बिना वैश्य द्वारा सम्पन्न किये हो नहीं सकती है। इसी प्रकार यदि शूद्र अपने शरीर से परिश्रम कर इन परमावश्यक पदार्थों को उत्पन्न न करे तो संसार में किसी का कार्य चल नहीं सकता और किसी की शरीरयात्रा निभ नहीं सकती है
और अन्न वस्त्र उत्पन्न हो नहीं सकते हैं। अतएव शूद्र इस विराट शरीर के यथार्थ में आधार हैं, अतएव वे इस दृष्टि से