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________________ धर्म का तत्त्व की १५ चाहिए जिससे किसी एक अङ्ग अथवा सम्पूर्ण की हानि हो अथवा परमात्मा के दिव्य गुण आदि के विकाश में बाधा हो (जो सृष्टि का मुख्योद्देश्य है) जो परम अधर्म है, क्योंकि सम्पूर्ण की उन्नति से उसके अंश को भी उन्नति होती है और समूह हानि से अंश की भी हानि होती है। धर्माधर्म को यह कसौटी है । उच्च दृष्टि में जिस कर्म से परमात्मा के दिव्य गुण आदि ( दैवी सम्पत्ति ) का विकाश हो वह धर्म है और जिससे इसमें बाधा पड़े वह धर्म (आसुरी सम्पत्ति ) है । गोता ० १६ के प्रारम्भ में दोनों प्रकार की सम्पत्ति का उल्लेख है। जैसे वृक्ष के एक अङ्ग को हानि पहुँचाने से सम्पूर्ण वृक्ष की हानि होती है, वैसे ही यदि एक प्राणी दूसरे की हानि करेगा तो उससे हानि करनेवाले की भी हानि हो जायगो, क्योंकि दोनों एक ही विश्ववृक्ष के भिन्न भिन्न अङ्ग हैं। जैसे वृक्ष के केवल एक अङ्ग को जल से सिक्त करने पर भी उस प्रङ्ग की वृद्धि उस जल द्वारा न होगी किन्तु वही जल यदि उस वृक्ष के मूल में दिया जायगा तो सम्पूर्ण वृक्ष की और उसके साथ उसके भिन्न भिन्न सब अड़ों की वृद्धि होगी, वैसे ही इस जगत् में केवल अपने स्वार्थ के निमित्त यत्न करने से किसी की यथार्थ उन्नति नहीं हो सकती है, किन्तु केवल स्वार्थपरायण न होकर जो सृष्टिमात्र की भलाई अर्थात् परोपकार करने में प्रवृत्त होगा उससे उसकी अपनी भी यथार्थ भलाई होगी। जो समूह के हित के लिये अपने क्षुद्र स्वार्थ को त्यागेगा वही अपनी यथार्थ उन्नति
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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