________________
१४
धर्म-कर्म-रहत्व स्थापन किया। जैसे बीज में सम्पूर्ण वृत्त (जिसका वह वीज है ) गुप्त रूप से निहित रहता है, वैसे ही इस सृष्टि के वीज में ईश्वर की सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य गुप्त रूप से वर्तमान रहते हैं जिनका विज्ञाश और प्रकाश वीज को विश्वरूप वृक्ष होकर क्रमशः धीरे धीरे करना होता है। श्रीमद्भगवद्गीता का वचन है
मस योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्नगर्भ दधाम्यहम् । सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत |
३ अ. १४। है भारत ! महद् ब्रह्म मेरी योनि है जिसमें मैं गर्भ प्रदान करता हूँ, जिससे सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है। उस वीज का यह विश्वरूप वृक्ष परिणाम है जिसके विकाश का उद्देश्य यह है कि अन्त में इसमें ऐसे उत्तम फल होवें जो वीज में के निहिव सब दिव्य गुण. सामर्थ्य, शक्ति प्रादि को विश्व के हित के लिये प्रकाशित करें और यह इस सृष्टि का परनोत्तम फल मनुष्य के लिये परम सिद्धावस्था. का प्राप्त करना है। सब प्राणी परमात्मा के विराट रूप के भिन्न भिन्न अङ्ग प्रत्यङ्ग है, अतएव प्रत्येक अङ्ग के निमित्त अपना अपना नियत कर्म है जो. उसका स्वधर्म और विशेष धर्म भी है। उसको ऐसा कर्म करना चाहिए जिससे सम्पूर्ण को उन्नति हो जो परम धर्म है, और कोई ऐसा कार्य कदापि नहीं करना