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धर्म का तत्त्व द्वारा सर्वत्र व्याप्त हो गये (गीता अ० १० श्लोक ४२) जिसमें उनकी शक्ति द्वारा सचराचर भी यज्ञ सम्पादन कर सहयोग दें। गोपालतापिनी उपनिषत् का वचन है-"स्वाहाऽऽश्रितो जगदेतत्सुरेताः । ईश्वर ने सुरेता होकर के स्वाहा अर्थात् प्रकृति का आश्रय करके जगत् का संचालन किया। पुरुषसूक्त का वचन है-"तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतं' अर्थात् उस आदि यज्ञ में ईश्वर ने अपने को आहुत किया और उसी से देवता रूपी पशु, वेद (धर्म का मूल ) आदि की उत्पत्ति हुई। फिर इन देवता, ऋपि आदि ने ईश्वर की उस दिव्य आध्यात्मिक शक्ति (गायत्री) की यज्ञ में आहुति देकर अर्थात् प्रयोग कर मन्त्रशक्ति के बल से सृष्टि में अन्य प्राणियों का उद्भव किया। पुरुपसूक्त का वचन है
"तं यज्ञम्बहि पि पौक्षन्पुरुषञ्जातमग्रतः। । तेन देवा अयजन्त साद्धया ऋषयश्च ये। यत्पुरुपेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत" ।
अग्रजात यज्ञ-पुरुष ईश्वर को यज्ञ-सामग्री बना ( उनकी शक्ति का प्रयोग कर ) साध्य, देव और ऋषिगणों ने यज्ञ किया ( अर्थात् उत्तर सृष्टि की रचना की)। देवताओं ने इस यज्ञपुरुष का हवि की भाँति प्रयोग कर यज्ञ किया ( अर्थात् सृष्टि के उत्पादन में प्रयोग किया)। और भी पुरुपसूक्त का वचन है
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि. प्रथमान्यासन्