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________________ ST धर्म-कर्म-रहस्य देवताओं ने यज्ञ से यज्ञपुरुष ईश्वर का यजन किया और इसी कारण यज्ञ ही सब धर्मों ( कर्तव्यों ) का मूल हुआ। अतएव इस सृष्टि-यज्ञ में यज्ञ द्वारा सहयोग करना धर्म और असहयोग अधर्म है। यह यज्ञ-धर्म मुख्य कर यही है कि ईश्वर के निमित्त उनको एकमात्र आदर्श बनाकर अपने को और दूसरों को भी एसा स्वच्छ, पवित्र, निष्कल्मष, शुद्ध, निर्मल और निःस्वार्थ बनाने का चन करना जिससे अपने में और दूसरों में भी ईश्वर के दिव्य गुण, सामर्थ्य आदि सृष्टि के हित के लिये प्रकाशित हों और ऐसा होने पर ईश्वर में सेवार्थ ( यज्ञार्य ) आत्मा को अर्पित कर और ब्रह्मानंद का लाभ कर उस ब्रह्मानंद को दूसरे में यज्ञ द्वारा वितरण करना अर्थात दूसरों को उसके लाभ के योग्य बनाना । मनुष्यशरीर पिण्डाण्ड (छोटा ब्रह्माण्ड ) है और दोनों के प्रायः एक से सामग्री और नियम हैं। यह शरीर भी अनेकानेक अणु, परमाणु, इन्द्रिय आदि के सङ्गठन का परिणाम है जिनके भिन्न भिन्न रहने पर भी यथार्थ में उनमें एकता है, क्योंकि वे एक शरीर के ही अभिन्न रूप में भिन्न भिन्न भाग हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य शरीर के अधिष्ठाता जीवात्मा का आज्ञा-पालन और हित-साधन करना है। इसके सम्पादन के लिये प्रथम तो उन सब ने अपने अपने पृथक स्वार्थ का स्वाहा ( यज्ञ ) कर दिया है और दूसरे दृढ़ सङ्गठन द्वारा परस्पर अभिन्न होकर और एक बनकर केवल अपने
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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