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धर्म-कर्म - रहस्य
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ईश्वर ने अपने इस प्रादि-सङ्कल्प की पूर्ति के लिये अपनी सङ्कल्प रूपी प्रकृति से अपने को स्वेच्छा से आबद्ध अथवा आवर्णित किया (गीता ० १६ श्लोक १७ और "अन्नेनातिरोहति – पुरुपसू — ईश्वर ने अन्न अर्थात् अपनी अवस्था का सृष्टि के निमित्त अतिक्रमण किया ) । इस प्रकार ईश्वर ने अपने को अपरिच्छिन्न से परिच्छिन्न, ज्योतिर्मय से तमस् ( प्रकृति ) से प्रावृत्त, सत् सत्ता को असत् ( माचा) से आवृत किया । इस द्वंद्व के विना सृष्टि की रचना हो नहीं सकती थी । इतने पर भी वे प्रकृति और माया के नियामक ही रहे । यह ईश्वर के लिये तपस्या अर्थात् यज्ञ है ( स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत् - तैत्तिरीयोपनिषत् - ईश्वर ने तप करके सृष्टि को सिरजा) । इसलिये ईश्वर का नाम यज्ञपुरुष और यज्ञवाराह है और इस यज्ञ में वे सदा निष्काम भाव से संसार के हित के लिये प्रवृत्त रहते हैं ( गीता* अ० ३ श्लांक २२ और २४ और अ० ४ श्लोक ७ र ८ ) । यज्ञ द्वारा सृष्टि के उद्भव होने के कारण यज्ञ-धर्म ही इसके कल्याण का एक मात्र साधक हुना (गीता अ० ३ श्लोक १०) | यथार्थ में ईश्वर ने स्वयं यज्ञ की सामग्री बनकर अपने को यज्ञ ( स्वाहा ) किया अर्थात् अपनी शक्ति
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# इस पुस्तक में गीता शब्द से श्रीमद्भगवद्गीता समझना चाहिए और जहाँ केवल एक श्रङ्क के बाद लकीर देकर फिर श्रङ्क हो वह पहिला अङ्क गीता का अध्याय और लकीर के बादवाला श्लोक संख्या समना चाहिए ।