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________________ धर्म का तत्त्व ३ हैं। मनुष्य के कल्याण के कर्म करने में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है वह धर्म है और हिंसादि निषिद्ध कर्मों के करने में जो रुकावट होती है वह प्रधर्म है । सृष्टि के पूर्व एक ईश्वर ही थे ( एकमेवाद्वितीयम् - श्रुति -- ईश्वर निश्चय अकेले थे, कोई दूसरा नहीं था ) । ईश्वर में सृष्टि के उद्भव का सङ्कल्प हुआ ( सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति-वैत्तिरीयोपनिषत् - ईश्वर ने अनेक प्रजा के उद्भव का संकल्प किया) । यही ईश्वर की यदि सङ्क परूपी उनकी दिव्य ( परा ) प्रकृति सृष्टि का जीवन-मूल, आधार और सञ्चालक है ( श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ७ श्लोक ५ ) । यह आदि-सङ्कल्प किसी स्वार्थ साधन के लिए नहीं हुआ, क्योंकि ईश्वर को न तो कुछ प्राप्त है और न कोई कर्तव्य ( गीता प्र० ३ श्लोक २२ ) । अतएव यह सङ्कल्प स्वार्थ-मूलक न होकर परार्थ - -मूलक अर्थात् तप और यज्ञ है । ( उक्त आदिशक्ति ही गायत्रा हैं अर्थात् त्राण करनेवाली हैं और वेद अर्थात परा विद्या का मूल हैं जिससे धर्म की उत्पत्ति हुई। इसका भाव यह है कि ये त्राण करनेवाली शक्ति केवल धर्म द्वारा त्राण करती हैं ।) इस आदि सङ्कल्प द्वारा ईश्वर ने अपने समान प्रक प्रजा को उत्पन्न करने ( एकोऽहं बहु स्याम् - श्रुति - एक हूँ, अनेक हो जाऊँ) और उनको अपने ब्रह्मानन्द, दिव्य शक्ति, सामर्थ्य आदि के सम्प्रदान अर्थात् यज्ञ ( स्वाहा ) करने का सङ्कप किया और यही इस सृष्टि यज्ञ का मुख्य तात्पर्य है ।
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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