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धर्म-कर्म-रहस्य धर्म ही जगत् का आधार है, संसार में सव प्रजा धर्मिष्ट का ही अनुसरण करती हैं, धर्म से पाप दूर होता है, धर्म ही में सब ठहरे हुए हैं, अतएव धर्म को ही श्रेष्ठ पदार्थ कहते हैं। 'महाभारत का वचन हैधारणाद्धर्ममित्याहुर्द्धर्मेण विधृताः प्रजाः । यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥
शान्तिपर्व अ० १०६ । धारण करता है, इस निमित्त धर्म नाम हुआ, जिसमें धारण ( रक्षा और पालन ) की शक्ति है वही धर्म है। धर्म का मूल यों है
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च नियमात्मनः । सम्यक् सङ्कल्पजं कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम् ॥
याज्ञवल्क्य । धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम् । धर्माल्लोकास्त्रयस्तात ! प्रवृत्ताः सचराचराः ॥
महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म, अध्याय ३०६ । विहितक्रियया साध्यो धर्मः पुंसां गुणो मतः । प्रतिषिद्धक्रियासाध्यः सगुणोऽधर्म उच्यते ॥ श्रुति, स्मृति, सदाचार, अन्तरात्म-प्रियता और विहित और शुभ सङ्कल्प धर्म के मूल हैं। सत्पुरुष का धर्म ही हित है, वही आश्रय है और चराचर तीनों लोक धर्म से ही चलते