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श्रीगणेशाय नमः श्री गुरुचरणकमले या नमः
धर्म-कर्म-रहस्य
धर्म का तत्व धर्म शब्द धृञ् धातु से निकला है। इसका अर्थ धारण करना अथवा पालन करना है। जो इस संसार और इसके प्राणियों के यथार्थ स्वयंसिद्ध स्वभाव और नित्य के कल्याणकारी व्यवहार का आधार है, जो सब प्रकार के अभ्युदय का कारण है और जिसके विना यह संसार उत्तम रूप से चल नहीं सकता वही धर्म है। ईश्वर धर्म ही द्वारा संसार की वृद्धि, रक्षा और पालन करते हैं, अतएव वे धर्म रूप कहे जाते हैं
नारायणोपनिपत का वचन हैधर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा, लोक धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति । धर्मेण पापमपनुदति, धर्मे सर्व प्रतिष्ठितं, तस्माद्धम्म परमं वदन्तीति ।। ।