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दुःख-मित्र
१६५ जा चुका है। हम लोगों का कल्याण इसके समझ लेने में है कि कर्म के फल को अवश्य भोगना होगा-बुरे कर्म के फल बुरे होंगे और उत्तम कर्म के उत्तम होंगे और बुरे कर्म के करने में जो किञ्चित् तत्काल में लाभ अथवा सुख मिलने की सम्भावना भी मालूम पड़े तो भी उस कर्म को नहीं करना चाहिए । प्रथमतः यह समझ लें कि यदि प्रारब्धानुसार उक्त लाभ अथवा सुख मिलने होंगे तो, उक्त बुरे कर्म के न करने पर भी, वे कभी न कभी साक्षात् अथवा प्रकारान्तर से मिल ही जायेंगे और यदि न मिलनेवाले होंगे तो उक्त चुरे कर्म के करने पर भी उनकी प्राप्ति न होगी। यदि ऐसा भी मान लिया जाय कि उक्त बुरे कर्म द्वारा उक्त लाभ अवश्य मिलेंगे तथापि वह कर्तव्य नहीं है। क्योंकि सामारिक लाभ नाशवान् है और किसी सांसारिक लाभ से यथार्थ सुख कदापि नहीं मिल सकता, और जो तात्कालिक सुख भ्रम के कारण दीख पड़ता है वह यथार्थ में सुख नहीं दुःख ही है। भविष्यत् में बुरे कर्म के बुरे फल जो भोगने पड़ते हैं वे अत्यन्त कठोर और दुःसह होते हैं। यदि कभी दुःख पा पड़े तो उसके आने पर व्यर्थ मनस्ताप करने और देव को अन्यायी समझने के बदले उससे लाभ उठाने का यत्न करना चाहिए जो दुःख के आने का यथार्थ उद्देश्य है। दुःख पाने पर समझना चाहिए कि यह मेरे पूर्वकृत दुष्ट कर्म का फल है जिसका करना अनुचित था किन्तु अज्ञानवश और परिणाम का विचार न करने से किया गया। अब उसके