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धर्म-कर्म - रहस्य
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के आने पर किञ्चित् सचेत हो जाते हैं और उस समय पापकर्म के न करने को प्रतिक्षा भी करते हैं किन्तु दुःख के चले जाने पर उस प्रतिज्ञा पर दृढ़ नहीं रहते और फिर पूर्ववत् दुष्ट कर्म करने लगते हैं। ऐसे लोगों को बड़े वेग से क्लेश और दुःख होते हैं क्योंकि वे चेतावनी को पाकर भी उपेक्षा करते हैं और जब तक उनकी आँख नहीं खुलती तब तक भोगते रहते हैं । हम लोग इस बड़ी अदूरदर्शिता और अज्ञान के कारण निरन्तर दुःख के सागर में पड़े रहते हैं और क्लेश पर क्लेश झेलते रहते हैं । दुःख पाने पर जिस दुष्ट कर्म के कारण दुःख हुआ उसका ज्ञान अन्तरात्मा के भीतर अङ्कित हो जाता है, और इसी का नाम "संस्कार" है । जिस पापकर्म के दुष्ट फल का ज्ञान और अनुभव उसमें संस्काररूप से अच्छी तरह अङ्कित हो गया उसके करने में उसकी प्रवृत्ति दूसरे जन्म में कदापि नहीं होती है । यही कारण है कि दो व्यक्ति, एक परिवार और समान शिक्षा और सङ्गत में रहने पर भी, पूर्व संस्कार के अनुसार भिन्न-भिन्न रुचि रखते हैं। यद्यपि स्थूल शरीर के अभिमानी "विश्व" नामक जीवात्मा को पुनर्जन्म की घटनाओं की स्मृति नहीं रहती क्योंकि स्थूल शरीर प्रत्येक जन्म में बदलता है, किन्तु उनका ज्ञान कारणशरीर के अभिमानी को, जिसका नाम "प्राज्ञ" है, रहता है और उक्त ज्ञान का "संस्कार" रूप में ज्ञान स्थूल शरीर के अभिमानी पर अङ्कित कर दिया जाता है । "मरण की परावस्था" प्रकरण में यह कहा -