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दुःख-मित्र उसके द्वारा उनकी शुद्धि नहीं होती। जो कोई ऐसा विवेक विचार नहीं करता और उसके प्रभाव के कारण दुष्ट कर्म के करने से नहीं रुकता, वह बार-बार अधिक से अधिक दुःख पाता रहता है जिससे उसका छुटकारा बिना अपने कुत्सित स्वभाव के बदले नहीं होगा। दुःख आने पर सभी कोई अधीर और व्यग्र हो जाते हैं और बड़ी कातरता दिखलाते हैं। उससे छूटने के लिये अनेक प्रकार की सहायता चाहते हैं और उपाय भी करते हैं और उनकी दुरवस्था को देखकर दूसरों को भी दया आती है। किन्तु शोक की बात है कि अधिकांश लोग आजकल यह नहीं समझते कि उनके दुःख और क्लेश के यथार्थ कारण उन्हीं के किये दुष्ट कर्म है, अन्य कुछ नहीं; और उनका आना तभी बन्द होगा जब कि वे दुष्ट कर्म करने से निवृत्त होंगे। आजकल यथार्थ में अधिकांश लोग कर्मफल के सिद्धान्त को व्यवहार में एकदम भूले हुए हैं जैसा कि कहा जा चुका है और अनेक दुःख झेलने पर भी दुष्ट कर्म से निवृत्ति का भाव उनके चित्त में नहीं आता है किन्तु वे बाह्य कर्म ( अनुष्ठान आदि ) और अन्य अनुपयुक्त यत्न द्वारा उसकी निवृत्ति की चेष्टा करते हैं जो प्रायः निष्फल है। दुःख के आने का यथार्थ उद्देश्य जीव को पाप कर्म से निवृत्त करना है और जब तक ऐसी निवृत्ति का भाव अन्तर में नहीं आवेगा, तब तक दुष्ट कर्म भी होते ही रहेंगे और उनके दुःखरूपी · फल भी अवश्य आते ही रहेंगे। कितने ऐसे भी हैं जो दुःख