SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म-कर्म-रहस्य से उसके करने में उसकी फिर प्रवृत्ति न हो किन्तु आन्तरिक घृणा अथवा उपेक्षा उत्पन्न हो जाय । प्रारम्भ में ऐसी घृणा आवश्यक है। अतएव हम लोग जो बुरे कर्म के फलस्वरूप दु:ख और क्लेश भोगते हैं उनसे यथार्थ में बड़ा लाभ होता है और वे उपकार ही करते हैं। दुष्ट कर्म के फल-रूप दुःखों के आने का उद्देश्य यही है कि हम लोग उनके कार्य-कारण के सम्बन्ध पर अच्छी तरह विचार करें और उससे ज्ञान को प्राप्त कर उसको हृदयङ्गम करें और बुरे कर्म के फिर न करने का दृढ़ निश्चय प्राप्त करें जिसको सदा स्मरण रखकर कार्य में परिणच करें। कर्मफल-अनिवार्य प्रकरण में ब्रह्मवैवर्त पुराण के जो वचन दिये गये हैं कि कर्म के फल को भोगने से पवित्रता होती है उसका यही तात्पर्य है। गीता का वचन है कि श्रीभगवान् सब प्राणियों के सुहृद् हैं (५-२६ और ६-१८) और दुःख की उत्पत्ति भी उन्हीं से है (१०-४ ) इसका भी यही तात्पर्य है कि दुःख, कष्ट देकर, चेतावनी देता है और इस प्रकार ज्ञान द्वारा पाप से निवृत्त करने का यत्न करता है। अतएव जब दुःख आवे तो उसके द्वारा श्रीभगवान की कृपा की प्राप्ति समझना चाहिए कि दुःख द्वारा ज्ञान प्राप्त कर दुष्ट वासना की निवृत्ति के लिये यह प्रसाद की भाँति आया है। यही कारण है कि धर्मात्मा प्रायः दुःख भोगते हैं जो यथार्थ में उनके हित के लिये आता है; और पापात्मा सुख में देखे जाते हैं जो उनके प्रारब्ध कर्म का फल है। किन्तु
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy