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धर्म-कर्म-रहस्य लिये शुद्ध हृदय से उसे पश्चात्ताप करना चाहिए और दुःख को । धैर्य से सहकर बढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि भविष्यत् में कदापि दुष्ट कर्म का आचरण नहीं करेंगे और सदा धर्म और न्याय में स्थित रहेंगे; किसी की किसी प्रकार की हानि न करेंगे अथवा इन्द्रियों की वहकावट में न पड़ेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा को सदा स्मरण रखना चाहिए और इसके विरुद्ध कदापि नहीं चलना चाहिए। यदि दुःख आने पर उसको अपने दुष्ट कर्म का फल मान उससे ज्ञान प्राप्त करें और अपने दोपों की जाँच कर उनको समूल नष्ट करने का यत्न करें और दुष्ट कर्म के करने से आन्तरिक घृणा अथवा दृढ़ उपेक्षा पैदा करें तो अवश्य बहुत बड़ा लाभ होगा और फिर किसी दुःख के आने की आशङ्का न रहेगी क्योंकि उनके कारण दुष्ट कर्म के करने से निवृत्ति हो जायगी। अतएव दुःख के आने पर धैर्य के साथ उसको भोगना चाहिए और घबराने के बदले यह समझकर प्रसन्न रहना चाहिए कि उक्त दुःख उपकार करने के लिये आया है, उसके भोगने पर अन्तरात्मा को ज्ञान हो जायगा जिससे फिर वह दुष्ट कर्म नहीं करेगा और इस प्रकार भविष्य में दुःख आने की सम्भावना न रहेगी किन्तु ज्ञान के कारण सुख मिलेगा।