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धर्म-कर्म-रहस्य दूसरा कोई नहीं है। अपने कर्म ही से यह बाधित होता है। और भी लिखा है
सुखं दुःखं भयं शोक जरां मृत्यु च जन्म च । सर्वे कर्मानुरोधेन काल एवं करोति चं ॥
- ब्रह्मवैवर्त, कृष्णजन्म खण्ड, उत्तरार्द्ध, अध्याय ६० सुख, दुख, भय, शोक, बुढ़ापा और मरण इन सवको कर्म के अनुसार ही काल भेजता है। और- .
न नष्टं दुष्कृतं कर्म सुकृतेन च कर्मणा। न नष्टं सुकृतं कर्म कृतेन दुष्कृतेन च ॥४१॥
वहीं, अध्याय ८४ शुभ कर्म करने से दुष्ट कर्म का नाश नहीं होता और शुभ कर्म भी दुष्ट कर्म के करने से नष्ट नहीं होते अर्थात् शुभ अशुभ दोनों कर्मों के फल भोगने पड़ते हैं। दोनों आपस में मुजरा नहीं होते। धर्मराज युधिष्ठिर ने केवल एक ही पाप, अश्वत्थामा की मृत्यु के विषय में द्रोण के कर्ण-गोचर में असत्यभाषण करके, किया किन्तु उनके विशाल पुण्य-पुत्र के साथ वह मुजरा न हुआ। और उसके फल को भोगने के लिये मरने के बाद उनको नरक के दरवाजे पर जाना पड़ा।