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________________ १४६ धर्म कर्म-रहस्य. 'मेटि जाय नहिं राम-रजाई । कठिन कर्म गति कछु न वसाई ॥. जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा।। काल कर्म वस होहिंगुसाई। वरवस राति-दिवस की नाई।। शुभ अरु अशुभ कर्म अनुहारी। ईश देइ फल हृदय विचारी ॥ करै जो कर्म पाव फल साई । निगम नीति अस कह सब कोई ॥ कौन काहु दुख सुख कर दाता। . .. निज कृत कम भोग सब भ्राता ॥ मानसरामायण काल भी कर्मानुसार ही लोगों को फल देता है। भागवत स्कन्ध ११, अध्याय २३ में कथा है कि अवन्तीपुरी में एक ब्राह्मण था जो सदा पाप-कर्म में रत रहता था। इस कारण उसको बहुत क्लेश भोगने पड़े। कष्ट पाने पर उसको ज्ञान का उदय हुआ और तब उसने अपने दुःख के कारण के विषय में यों कहा-"नायं जनो मे सुखदुःखहेतुर्न देवतात्माग्रहकम्मकालाः। मनः परं कारणमामनन्ति संसारचक्र परिवर्तयेद् यत् ॥ ४२ ॥ मेरे दुःख का कारण न मनुष्य है, न देवता, न
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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