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कर्म-फल अनिवार्य
शुभेन कर्मणा सौख्य दुःखं पापेन कर्मणा । कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते कचित् ॥१०॥ महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय ६
कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते । सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥
भागवत, स्कन्ध १०, अध्याय २४
शुभ कर्म से सुख मिलता है और पाप कर्म के करने से दुःख होता है | किये हुए का ही फल मनुष्य सर्वत्र पाता है और जो नहीं किया उसका फल कदापि कोई नहीं भागता । कर्म से जन्तु की उत्पत्ति होती है और उसी से लय भी होता है और कर्म ही द्वारा सुख, दुःख, भय और कुशल प्राप्त होते हैं ।। १०-१३ ।। और भी
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येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः ।
तेन तेन शरीरेण तत्तत् फलमुपाश्नुते ॥ ४ ॥ महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय ७
जिस शरीर से जो कर्म करता है उसी शरीर से उस कर्म का फल पाता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है
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चौपाई
कर्म प्रधान विश्व करि राखा । - जो जस करै सो तस फल चाखा ॥