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धर्म-कर्म-रहस्य संसार में रहने के समय शावज्ञ पण्डित होने की तीत्र लालसा थी, किन्तु यन करने पर भी पूर्ण नहीं हुई, तो उसके स्वर्ग में जाने पर इस अपूर्ण इच्छा से बना हुआ मानसिक चित्र उसके सामने आवेगा और प्रत्यक्ष हो जायगा। वह अपने को वहाँ यथार्थ में शावज्ञ पण्डित पावेगा। इस कारण आगामी जन्म में शास्त्रज्ञ पण्डित होने की योग्यता का संस्कार वीज रूप से उसके अभ्यन्तर में पड़ जायगा और दूसरे जन्म में वह अवश्य शास्त्रज्ञ पण्डित होगा। योगवाशिष्ठ में लिखा हुआ है कि मरने के बाद पूर्व के सव सङ्कल्प प्रत्यक्ष भासने लगते हैं। रात्रि में भोजन करके सोने पर जैसे भोजन किये हुए पदार्थ को मनुष्य पचाता है, जो पचकर उसका सार शरीर की पुष्टि के लिये उसका एक भाग हो जाता है वैसे ही वीक में मनुष्य अपने उत्तम भावना और कर्म से बने हुए मानसिक चित्र रूप मानसिक भोजन का अनुभव और अभिनय काके परिपक्व करता है और संस्कार-रूपी सार उनमें से निकालकर उससे अपने अन्तर-पटल अथवा कारणशरीर की पुष्टि करता है। शास्त्र में वर्गलोक में भोगने की जो वात लिखी है उस भाग का एक तात्पर्य यही है। अपने किये हुए नाना प्रकार के कर्मों के सुखद और दुःखद जो फल उसने जीवन में पाये हैं उन पर विचार करके वह जीवात्मा उससे सार ग्रहण करता है और उसका संस्कार लब्ध कर उसके कारण सचेत और सावधान हो जाता है। इस विचार का ऐसा प्रवल संस्कार उसमें