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मृत्यु की परावस्था
१३५ प्रकाश भाव से उसके अन्तरपटल के बाह्य भाग में रहता है । स्वर्लोक में उत्तम भावना और कर्म के मानसिक चित्र के सिवा दुष्ट भावना के चित्र जा नहीं सकते और यहाँ जो उत्तम भावनाएँ सोची गई थीं और उत्तम कर्म किये गये थे उन्हीं का स्फुरण वहाँ होता है; दुष्ट भावना का कदापि नहीं ।
स्वर्गलोक में जाने पर जीव की सोची हुई उत्तम भावना और कर्म के जो मानसिक चित्र बने रहते हैं उनका एक एक करके स्फुरण होता है। किसी एक का स्फुरण होते ही वह वहाँ प्रत्यक्ष हो जाता है, अर्थात् उस भावना के अनुसार वह काम करने में प्रवृत्त हो कृतकार्य हो जाता है। तब उसका संस्कार उस जीव में पड़ता है। जैसे किसी को यदि इस
* केवल उत्तम भावना से ही कारणशरीर की पुष्टि होती है और केवल उसी का संस्कार उसमें सदा रहने के लिये पड़ता है । किन्तु दुष्ट भावना का संस्कार उसके भीतर प्रवेश नहीं कर सकता । जब कोई व्यक्ति स्वर्लोक में जाता है तब भी बुरा संस्कार उसमें संलग्न अवश्य रहता है किन्तु वह कारणशरीर में संलग्न नहीं हो सकता । प्रत्येक जन्म का अन्त होने पर स्थूल और सूक्ष्म शरीर का नाश हो जाता है, केवल कारणशरीर नष्ट न होकर सदा बना रहता है। क्योंकि उत्तम भावना का ही संस्कार कारणशरीर में पड़ता है, अतएव प्रत्येक जन्म में से केवल उत्तम भावना रूप सार ही कारणशरीर को प्राप्त होता है; सिवा उसके अन्य शुभ संस्कार कारणशरीर में प्रवेश न करने के कारण अन्य कोई उद्देश्य उनसे साधन नहीं होता और उनमें जो शक्ति व्यय होती उससे लाभ के बदले हानि ही होती ।